If you searching for the best Hindi Poetry on Life then you are in the right place. Here I’m sharing with you unique Hindi Poetry on Life which is really amazing and interesting I’m sure you will like it and appreciate it. This Poetry also encourages you in your life.
1.राह कौन–सी जाऊँ मैं? Hindi Poetry on Life
चौराहे पर लुटता चीर, प्यादे से पिट गया वजीर,
चलूँ आखिरी चाल कि बाजी छोड़ विरक्ति रचाऊँ मैं? राह कौन–सी जाऊँ मैं?
सपना जनमा और मर गया, मधु–ऋतु में ही बाग झर गया,
तिनके बिखरे हुए बटोरी या नव–सृष्टि सजाऊँ मैं? राह कौन–सी जाऊँ मैं?
दो दिन मिले उधार में, घाटे के व्यापार में,
क्षण–क्षण का हिसाब जो या पूँजी शेष लुटाऊँ मैं? राह कौन–सी जाऊँ मैं?
Click here – Popular 05 Ramdhari Singh Dinkar Poems रामधारी सिंह ‘दिनकर’
नए मील का पत्थर Hindi Poetry on Life
नए मील का पत्थर पार हुआ। कितने पत्थर शेष न कोई जानता?
अंतिम कौन पड़ाव नहीं पहचानता? अक्षय सूरज, अखंड धरती,
केवल काया, जीती–मरती, इसलिए उम्र का बढ़ना भी त्योहार हुआ।
नए मील का पत्थर पार हुआ। बचपन याद बहुत आता है,
यौवन रस–घट भर लाता है, बदला मौसम,ढलती छाया, रिसती गागर,
लुटती माया, सब कुछ दाँव लगाकर घाटे का व्यापार हुआ। नए मील का पत्थर पार हुआ।
- नई गांठ लगती Hindi Poetry on Life
जीवन की डोर छोर छूने को मछली, जाड़े की धूप स्वर्ण–कलशों से फिसली,
अंतर की अमराई सोई पड़ी शहनाई, एक दबे दर्द–सी सहसा ही जगती। नई गांठ लगती।
दूर नही, पास नहीं, मंजिल अजानी, साँसों के सरगम पर चलने की ठानी, पानी पर लकीर–सी,
खुली जंजीर–सी। कोई मृगतृष्णा मुझे बार–बार छलती। नई गांठ लगती।
मन में लगी जो गांठ मुश्किल से खुलती, दागदार जिंदगी न घाटों पर धरती, जैसी की तैसी नहीं,
जैसी है वैसी सही कबिरा की चादरिया बड़े भाग मिलती। नई गांठ लगती।
- अमर है गणतंत्र Hindi Poetry on Life
(१)
राजपथ पर भीड़, जनपथ पड़ा सूना, पलटनों का मार्च, होता शोर दूना।
शोर से डूबे हुए स्वाधीनता के स्वर, बुद्ध वाणी, लेखनी जड़, कसमसाता उर।
भयातंकित भीड़, जन अधिकार वंचित, बंद न्याय–कपाट, सत्ता अमर्यादित।
लोक का क्षय, व्यक्ति का जयकार होता, स्वतंत्रता का स्वप्न, रावी तीर रोता।
(२)
रक्त के आँसू बहाने को विवश गणतंत्र, राजमद ने रौंद डाले मुक्ति के शुभ मंत्र ।
क्या इसी दिन के लिए पूर्वज हुए बलिदान? पीढ़ियाँ जूझीं, सदियों चला अग्नि–स्नान?
स्वतंत्रता के दूसरे संघर्ष का घननाद, होलिका आपात् की फिर माँगती प्रह्लाद।
अमर है गणतंत्र, कारा के खुलेंगे द्वार, पुत्र अमृत के न विष से मान सकते हैं।
-Hindi Poetry on Life by अटल बिहारी वाजपेयी
- एक बरस बीत गया Hindi Poetry on Life
एक बरस बीत गया झुलसाता जेठ मास शरद चाँदनी उदास सिसकी भरते सावन का अंतर्घट रीत गया
एक बरस बात गया। सीकचों में सिमटा जग किंतु विकल प्राण विहग धरती से अंबर तक गूँज मुक्ति गीत गया,
एक बरस बीत गया। पथ निहारते नयन गिनते दिन,
पल, छिन लौट कभी आएगा मन का जो मीत गया, एक बरस बीत गया।
- रोते–रोते रात सो गईHindi Poetry on Life
झुकी न अलकें झपी न पलकें सुधियों की बारात खो गई।
दर्द पुराना, मीत न जाना, बातों में ही प्रात हो गई। घुमड़ी बदली,
बूँद न निकली, बिछुड़न ऐसी व्यथा बो गई।
- जीवन की ढलने लगी साँझ Hindi Poetry on Life
जीवन की ढलने लगी साँझ उमर घट गई डगर कट गई जीवन की ढलने लगी साँझ।
बदले हैं अर्थ शब्द हुए व्यर्थ शांति बिना खुशियाँ हैं बाँझ।
सपनों से मीत बिखरा संगीत
ठिठक रहे पाँव और झिझक रही झाँझ। जीवन की ढलने लगी साँझ।
To read different topics visit https://findingceo.com/
- मोड़ पर Hindi Poetry on Life
मुझे दूर का दिखाई देता है, मैं दीवार पर लिखा पढ़ सकता हूँ,
मगर हाथ की रेखाएँ नहीं पढ़ पाता। सीमा के पार भड़कते शोले
मुझे दिखाई देते हैं। पर पाँवों के इर्द–गिर्द फैली गरम राख नजर नहीं आती।
क्या मैं बूढ़ा हो चला हूँ? हर पचीस दिसंबर को जीने की एक नई सीढ़ी चढ़ता हूँ,
नए मोड़ पर औरों से कम, स्वयं से ज्यादा लड़ता हूँ।
मैं भीड़ को चुप करा देता हूँ, मगर अपने को जवाब नहीं दे पाता,
मेरा मन मुझे अपनी ही अदालत में खड़ा कर, जब जिरह करता है,
मेरा हलफनामा मेरे ही खिलाफ पेश करता है,
तो मैं मुकदमा हार जाता हूँ, अपनी ही नजर में गुनहगार बन जाता हूँ।
तब मुझे कुछ दिखाई नहीं देता, न दूर का, न पास का, मेरी उम्र अचानक दस साल बढ़ जाती है,
मैं सचमुच बूढ़ा हो जाता हूँ।
-Hindi Poetry on Life by अटल बिहारी वाजपेयी
- ऊँचाई Hindi Poetry on Life
ऊँचे पहाड़ पर, पेड़ नहीं लगते, पौंधे नहीं उगते, न घास ही जमती है।
जमती है सिर्फ बर्फ, जो कफन की तरह सफेद और मौत की तरह ठंडी होती है।
खेलती, खिलखिलाती नदी, जिसका रूप धारण कर अपने भाग्य पर बूंद–बूंद रोती है।
ऐसी ऊँचाई, जिसका परस, पानी को पत्थर कर दे, ऐसी ऊँचाई जिसका दरस हीन भाव भर दे,
अभिनंदन की अधिकारी है, आरोहियों के लिए आमंत्रण है, उस पर झंडे गाड़े जा सकते हैं,
किंतु कोई गौरैया, वहाँ भीड़ नहीं बना सकती, न कोई थका–माँदा बटोही, उसकी छाँव में पल भर पलक ही झपका सकता है।
सच्चाई यह है कि केवल ऊँचाई ही काफी नहीं होती, सबसे अलग–थलग परिवेश से पृथक्,
अपनों से कटा–बँटा, शून्य में अकेला खड़ा होना, पहाड की महानता नहीं, मजबरी है।
ऊँचाई और गहराई में आकाश–पाताल की दूरी है। जो जितना ऊँचा, उतना ही एकाकी होता है,
हर भार को स्वयं ही ढोता है, चेहरे पर मुसकानें चिपका, मन–ही–मन रोता है।
जरूरी यह है कि ऊँचाई के साथ विस्तार भी हो, जिससे मनुष्य ठूँठ–सा खडा न रहे,
औरों से घुले–मिले, किसी को साथ ले, किसी के संग चले। भीड़ में खो जाना, यादों में डूब जाना, स्वयं को भूल जाना,
अस्तित्व को अर्थ, जीवन को सुगंध देता है। धरती को बौनों की नहीं, ऊँचे कद के इनसानों की जरूरत है।
इतने ऊँचे कि आसमान को छू लें, नए नक्षत्रों में प्रतिभा के बीज बो लें, किंतु इतने ऊँचे भी नहीं,
कि पाँव तले दूब ही न जमे, कोई काँटा न चुभे, कोई कली न खिले। न वसंत हो, न पतझड़,
हो सिर्फ ऊँचाई का अंधड़, मात्र अकेलेपन का सन्नाटा। मेरे प्रभु!
मुझे इतनी ऊँचाई कभी मत देना गैरों को गले न लगा सकूँ इतनी रुखाई कभी मत देना।
-Hindi Poetry on Life by अटल बिहारी वाजपेयी
- मन को संतोष Hindi Poetry on Life
पृथिवी पर मनुष्य ही ऐसा एक प्राणी है, जो भीड़ में अकेला, और अकेले में भीड़ से घिरा अनुभव करता है।
मनुष्य को झुंड में रहना पसंद है। घर–परिवार से प्रारंभ कर, वह बस्तियाँ बसाता है। गली–ग्राम–पुर–नगर सजाता है।
सभ्यता की निष्ठुर दौड़ में, संस्कृति को पीछे छोड़ता हुआ, प्रकृति पर विजय, मृत्यु को मुट्ठी में करना चाहता है।
अपनी रक्षा के लिए औरों के विनाश के सामान जुटाता है। आकाश को अभिशप्त, धरती को निर्वसन,
वायु को विषाक्त, जल को दूषित करने में संकोच नहीं करता।
किंतु, यह सबकुछ करने के बाद जब वह एकांत में बैठकर विचार करता है,
वह एकांत, फिर घर का कोना हो, या कोलाहल से भरा बाजार,
या प्रकाश की गति से तेज उड़ता जहाज, या कोई वैज्ञानिक प्रयोगशाला, या मंदिर या मरघट।
जब वह आत्मालोचन करता है, मन की परतें खोलता है, स्वयं से बोलता है,
हानि–लाभ का लेखा–जोखा नहीं, क्या खोया, क्या पाया का हिसाब भी नहीं,
जब वह पूरी जिंदगी को ही तौलता है, अपनी कसौटी पर स्वयं को ही कसता है,
निर्ममता से निरखता, परखता है, तब वह अपने मन से क्या कहता है!
इसी का महत्त्व है, यही उसका सत्य है। अंतिम यात्रा के अवसर पर,
विदा की वेला में, जब सबका साथ छूटने लगता है, शरीर भी साथ नहीं देता,
तब आत्मग्लानी से मुक्त यदि कोई हाथ उठाकर यह कह सकता है कि उसने जीवन में जो कुछ किया,
यही समझकर किया, किसी को जानबूझकर चोट पहुँचाने के लिए नहीं,
सहज कर्म समझकर किया, तो उसका अस्तित्व सार्थक है,
उसका जीवन सफल है। उसी के लिए यह कहावत बनी है, मन चंगा तो कठौती में गंगाजल है।
-Hindi Poetry on Life by अटल बिहारी वाजपेयी
- मैं सोचने लगता हूँ Hindi Poetry on Life
तेज रफ्तार से दौड़ती बसें बसों के पीछे भागते लोग, बच्चे सम्हालती औरतें,
सड़कों पर इतनी धूल उड़ती है कि मुझे कुछ दिखाई नहीं देता। मैं सोचने लगता हूँ।
पुरखे सोचने के लिए आँखें बंद करते थे, मैं आँखें बंद होने पर सोचता हूँ।
बसें ठिकानों पर क्यों नहीं ठहरतीं? लोग लाइनों में क्यों नहीं लगते? आखिर यह भाग–दौड़ कब तक चलेगी?
देश की राजधानी में, संसद् के सामने, धूप कब तक उड़ेगी?
मेरी आँखें बंद हैं, मुझे कुछ दिखाई नहीं देता। मैं सोचने लगता हूँ।
-Hindi Poetry on Life by अटल बिहारी वाजपेयी
- दूर कहीं कोई रोता है Hindi Poetry on Life
तन पर पहरा, भटक रहा मन, साथी है केवल सूनापन,
बिछुड़ गया क्या स्वयं किसी का, क्रंदन सदा करुण होता है।
जन्मदिन पर हम इठलाते, क्यों न मरण–त्योहार मनाते,
अंतिम यात्रा के अवसर पर, आँसू का अपशकुन होता है। अंतर रोए, आँख न रोए, धुल जाएँगे स्वप्न सँजोए,
छलना भरे विश्व में केवल सपना ही तो सच होता है। इस जीवन से मृत्यु भली है,
आतंकित जब गली–गली है। मैं भी रोता आस–पास जब कोई कहीं नहीं होता है। दूर कहीं कोई रोता है।
- मौत से ठन गई Hindi Poetry on Life
ठन गई! मौत से ठन गई! जूझने का मेरा कोई इरादा न था, मोड़ पर मिलेंगे इसका वादा न था,
रास्ता रोककर वह खड़ी हो गई, यों लगा ज़िन्दगी से बड़ी हो गई।
मौत की उम्र क्या? पल भी नहीं, जिंदगी–सिलसिला, आज–कल की नहीं, मैं जी भर जिया,
मैं मन से मु, लौटकर आऊँगा, कूच से क्यों डरु?
तू दबे पाव, चोरी–छिपे से न आ, सामने वार कर, फिर मुझे आजमा, मौत से बेखबर,
जिंदगी का सफर, शाम हर सुरमई, रात बंसी का स्वर।
बात ऐसी नहीं कि कोई गम ही नहीं, दर्द अपने–पराए कुछ कम भी नहीं।
प्यार इतना परायों से मुझको मिला, न अपनों से बाकी है कोई गिला।
हर चुनौती से दो हाथ मैंने किए, आँधियों में जलाए हैं बुझते दिए, आज झकझोरता तेज तूफान है,
नाव भँवरों की बाँहों में मेहमान है। पार पाने का कायम मगर हौसला, देख तूफाँ का तेवर तरी तन गई, मौत से ठन गई।
-Hindi Poetry on Life by अटल बिहारी वाजपेयी
- आओ फिर से दिया जलाएँ Hindi Poetry on Life
भरी दुपहरी में अँधियारा, सूरज परछाईं से हारा, अंतरतम का नेह निचोड़ें बुझी हुई बाती सुलगाएँ।
आओ फिर से दिया जलाएँ।
हम पड़ाव को समझे मंजिल, लक्ष्य हुआ आँखों से ओझल, वर्तमान के मोहजाल में आने वाला कल न भुलाएँ।
आओ फिर से दिया जलाएँ।
आहुति बाकी,यज्ञ अधूरा, अपनों के विघ्नों ने घेरा, अंतिम जय का वज्र बनाने,नव दधीचि हड्डियाँ गलाएँ।
आओ फिर से दिया जलाएँ।
- यक्ष प्रश्न Hindi Poetry on Life
जो कल थे, वे आज नहीं हैं। जो आज हैं, वे कल नहीं होंगे। होने, न होने का क्रम, इसी तरह चलता रहेगा, हम हैं, हम रहेंगे,
यह भ्रम भी सदा पलता रहेगा। सत्य क्या है? होना या न होना? या दोनों ही सत्य हैं?
जो है, उसका होना सत्य है, जो नहीं है, उसका न होना सत्य है। मुझे लगता है कि होना–न–होना एक ही सत्य के दो आयाम हैं,
शेष सब समझ का फेर, बुद्धि के व्यायाम हैं। किंतु न होने के बाद क्या होता है, यह प्रश्न अनुत्तरित है।
प्रत्येक नया नचिकेता, इस प्रश्न की खोज में लगा है। सभी साधकों को इस प्रश्न ने ठगा है।
शायद यह प्रश्न प्रश्न ही रहेगा। यदि कुछ प्रश्न अनुत्तरित रहें
तो इसमें बुराई क्या है? हाँ, खोज का सिलसिला न रुके, धर्म की अनुभूति,
विज्ञान का अनुसंधान, एक दिन, अवश्य ही रुद्ध द्वार खोलेगा। प्रश्न पूछने के बजाय यक्ष स्वयं उत्तर बोलेगा।
- अमर आग है Hindi Poetry on Life
कोटि–कोटि आकुल हृदयों में सुलग रही है जो चिनगारी, अमर आग है, अमर आग है।
उत्तर दिशा में अजित दुर्ग–सा जागरूक प्रहरी युग–युग का, मूर्तिमंत स्थैर्य, धीरता की प्रतिमा–सा अटल अडिग नगपति विशाल है।
नभ की छाती को छूता–सा कीर्ति–पुंज सा, दिव्य दीपकों के प्रकाश में झिलमिल–झिलमिल ज्योतित माँ का पूज्य भाल है।
कौन कह रहा उसे हिमालय? वह तो हिमावृत्त ज्वालागिरि, अणु–अणु, कण–कण, गह्र कंदर। गुंजित ध्वनि कर रहा अब तक डिम–डिम डमरू का भैरव स्वर।
गौरीशंकर के गिरि–गह्वर शैल–शिखर, निर्झर, वन–उपवन तरु तृण–दीपित।
शंकर के तीसरे नयन की प्रलय–विह्नि जगमग ज्योतित। जिसको छूकर, क्षण भर ही में काम रह गया था मुट्ठी भर।
यही आग ले प्रतिदिन प्राची अपना अरुण सुहाग सजाती, और प्रखर दिनकर की कंचन काया,
इसी आग में पलकर निशि–निशि, दिन–दिन जल–जल, प्रतिपल सृष्टि–प्रलय–पर्यंत समावृत जगती को रास्ता दिखाती।
यही आग ले हिंद महासागर की छाती है धधकाती। लहर–लहर प्रज्वाल लपट बन पूर्व–पश्चिमी घाटों को छू,
सदियों की हतभाग्य निशा में सोए शिलाखंड सुलगाती। नयन–नयन में यही आग ले कंठ–कंठ में प्रलय राग ले, अब तक हिंदुस्तान जिया है।
इसी आग की दिव्य विभा में, सप्त–सिंधु के कल कछार पर, सुर–सरिता की धवल धार पर तीर–तटों पर,
पर्णकुटी में, पर्णासन पर कोटि–कोटि ऋषियों–मुनियों ने दिव्य ज्ञान का सोम पिया था।
जिसका कुछ उच्छिष्ट मंत्र बर्बर पश्चिम ने, दया दान–सा, निज जीवन को सफल मानकर, कर पसारकर, सिर–आँखों पर धार लिया था।
वेद–वेद के मंत्र–मंत्र में मंत्र–मंत्र की पंक्ति–पंक्ति में पंक्ति–पंक्ति के शब्द–शब्द में, शब्द–शब्द के अक्षर स्वर में,
दिव्य ज्ञान–आलोक प्रदीप, सत्यं शिवं सुन्दरम् शोभित, कपिल, कणाद और जैमिनि की स्वानुभूति का अमर प्रकाशन, विशद–विवेचन, प्रत्यालोचन,
ब्रह्म, जगत्, माया का दर्शन। कोटि–कोटि कंठों में गूंजा जो अतिमंगलमय स्वर्गिक स्वर,
अमर राग है, अमर आग है। कोटि–कोटि आकुल हृदयों में सुलग रही है जो चिनगारी अमर आग है, अमर आग है।
यही आग सरयू के तट पर दशरथ जी के राजमहल में, धन–समूह में चल चपला–सी, प्रगट हुई प्रज्वलित हुई थी।
दैत्य–दानवों के अधर्म से पीड़ित पुण्य भूमि का जन–जन, शंकित मन–मन, त्रसित विप्र,
आकुल मुनिवर–गण, बोल रही अधर्म की तूती दुस्तर हुआ धर्म का पालन।
तब स्वदेश–रक्षार्थ देश का सोया क्षत्रियत्व जागा था। राम–रूप में प्रगट हुई यह ज्वाला, जिसने असुर जलाए देश बचाया,
वाल्मीकि ने जिसको गाया। चकाचौंध दुनिया ने देखी सीता के सतीत्व की ज्वाला,
विश्व चकित रह गया देखकर नारी की रक्षा–निमित्त जब नर क्या वानर ने भी अपना महाकाल की बलि–वेदी पर,
अगणित होकर सस्मित हर्षित शीश चढ़ाया।
यही आग प्रज्वलित हुई थी यमुना की आकुल आहों से, अत्याचार–प्रपीड़ित ब्रज के अश्रु–सिंधु में बड़वानल बन कौन सह सका माँ का क्रंदन?
दीन देवकी ने कारा में सुलगाई थी यही आग, जो कृष्ण–रुप में फूट पड़ी थी। जिसको छूकर माँ के कर की कडियाँ, पग की लड़ियाँ चट–चट टूट पड़ी थीं।
पांचजन्य का भैरव स्वर सुन तड़प उठा आक्रुध्द सुदर्शन, अर्जुन का गांडीव, भीम की गदा, धर्म का धर्म डट गया,
अमर भूमि में, समर भूमि में, कर्म भूमि में, कर्म भूमि में, गूंज उठी गीता की वाणी, मंगलमय जन–जन कल्याणी।
अपढ़, अजान विश्व ने पाई शीश झुकाकर एक धरोहर। कौन दार्शनिक दे पाया है अब तक ऐसा जीवन–दर्शन?
कालिंदी के कल कछार पर कृष्ण–कंठ से गूंजे जो स्वर अमर राग है, अमर राग है।
कोटि–कोटि आकुल हृदयों में सुलग रही है जो चिनगारी, अमर आग है, अमर आग है।
-Hindi Poetry on Life by अटल बिहारी वाजपेयी
Thank you for reading this Hindi Poetry on Life I’m sure you would like it. In this article versus type Poetry on Life, you can find and read it if you want you can share these poems with your friends and family I’m sure they will also like these poems and they thank you for sharing these poems.
Click here – 11+ Unique Inspirational Poems in Hindi प्रेरणादायक 2021
To Know Some Great Stuff Do Visit FilmyViral
To Know Some Great Stuff Do Visit FinanceNInsurance
To Know Some Great Stuff Do Visit FindingCEO