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- असमय आह्वान Ramdhari Singh Dinkar Poems
(1)
समय–असमय का तनिक न ध्यान, मोहिनी; यह कैसा आह्वान?
पहन मुक्ता के युग अवतंस, रत्न–गुम्फित खोले कच–जाल, बजाती मधुर चरण–मंजीर, आ गई नभ में रजनी–बाल।
झींगुरों के सुन शिजन–नाद, मिलन–आकुलता से द्युतिमान, भेद प्राची का कज्जल–भाल, बढ़ा ऊपर विधु वेपथुमान।
गया दिन धूलि–धूम के बीच तुम्हारा करते जयजयकार, देखने आया था इस साँझ, पूर्ण विधु का मादक श्रृंगार।
एक पल सुधा–वृष्टि के बीच जुड़ा पाएन क्लान्त मन–प्राण, कि सहसा गूंज उठा सब ओर तुम्हारा चिर–परिचित आह्वान।
(2)
यह कैसा आह्वान! समय–असमय का तनिक न ध्यान।
झुकी जाती पलकें निस्पन्द दिवस के श्रम का लेकर भार, रहें दृग में क्रम–क्रम से खेल नए, भोले, लघु स्वप्न–कुमार।
रक्त–कर्दम में दिन भर फूक रजत–श्रृंगी से भैरव नाद, अभी लगता है कितना मधुर चाँदनी का सुनना संवाद!
दग्ध करती दिनभर सब अंग तुम्हारे मरू की जलती धूल; निशा में ही खिल पाते देवि! कल्पना के उन्मादक फूल।
अन्य अनुचर सोये निश्चिन्त शिथिल परियों को करते प्यार; रात में भी मुझपर पड़ ही द्वार–प्रहरी का गुरुत्व भार।
सुलाने आई गृह–गृह डोल नींद का सौरभ लिए बतास; हुए खग नीड़ों में निस्पन्द, नहीं तब भी मुझको अवकाश!
ऊँघती इन कलियों को सौंप कल्पना के मोहक सामान; पुन: चलना होगा क्या हाय, तुम्हारा सुन निष्ठुर आह्वान।
(3)
यह कैसा आह्वान! समय–असमय का तनिक ध्यान।
तुम्हारी भरी सृष्टि के बीच एक क्या तरल अग्नि ही पेय? सुधा–मधु का अक्षय भांडार एक मेरे ही हेतु अदेय?
‘उठो‘ सुन उठो, हुई क्या देवि, नींद भी अनुचर का अपराध? ‘मरो‘ सुन मरूँ, नहीं क्या शेष अभी दो दिन जीने की साध?
विपिन के फूल–फूल में आज रही वासन्ती स्वयं पुकार; अभी भी सुनना होगा देवि! दुखी धरणी का हाहाकार?
कम क्या एकमात्र वरदान? सत्य ही क्या जीवन का श्रेय? दग्ध, प्यासी अपनी लघु चाह मुझे ही रही नहीं क्या गेय?
मचलता है उडुओं को देख निकलने जब कोई अरमान; तभी उठता बज अन्तर–बीच तुम्हारा यह कठोर आह्वान!
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(4)
यह कैसा आह्वान! समय–असमय का तनिक न ध्यान।
चाँदनी में छिप किसकी ओट पुष्पधन्वा ने छोड़े तीर? बोलने लगी कोकिला मौन, खोलने लगी हृदय की पीर?
लताएँ ले द्रुम का अवलम्ब सजाने लगीं नया श्रृंगार; प्रियक–तरु के पुलकित सब अंग प्रिया का पाकर मधुमय भार।
नहीं यौवन का श्लथ आवेग स्वयं वसुधा भी सकी सँभाल, शिराओं का कम्पन ले दिया सिहरती हरियाली पर डाल।
आज वृन्तों पर बैठे फूल पहन नूतन, कर्वुर परिधान; विपिन से लेकर सौरभ–भार चला उड़ व्योम–ओर पवमान।
किया किसने यह मधुर स्पर्श? विश्व के बदल गये व्यापार। करेगी उतर व्योम से आज कल्पना क्या भू पर अभिसार?
नील कुसुमों के वारिद–बीच हरे पट का अवगुंठन डाल; स्वामिनी! यह देखो, है खड़ी पूर्व–परिचित–सी कोई बाल!
उमड़ता सुषमाओं को देख आज मेरे दृग में क्यों नीर? लगा किसका शर सहसा आन? जगी अन्तर में क्यों यह पीर?
न जानें, किसने छूकर मर्म जगा दी छवि–दर्शन की चाह; न जानें, चली हृदय को छोड़ खोजने किसको सुरभित आह!
अचानक कौन गया कर क्षुब्ध न जानें उर का सिन्धु अथाह? जगा किसका यह मादक रोष रोकने मुझ अजेय की राह?
न लूंगा आज रात का शंख, न गाऊँगा पौरुष का राग; स्वामिनी! जलने दो उर–बीच एक पल तो यह मीठी आग।
तपा लेने दे जी भर आज वेदों में पुराणों के गान; कनक–सा तपकर पीड़ा–बीच सफल होगा मेरा बलिदान।
चन्द्र–किरणों ने खोले आज रुद्ध मेरी आहों के द्वार; मनाने आ बैठा एकान्त मधुरता का नूतन त्योहार।
शिथिल दृग में तन्द्रा का भार, हृदय में छवि का मादक ध्यान; वेदना का सम्मुख मधु पर्व, और तब भी दारुण आह्वान। (Ramdhari Singh Dinkar Poems)
(5)
यह कैसा आह्वान! समय–असमय का तनिक न ध्यान।
चाँदनी की अलकों में गूँथ छोड़ दूं क्या अपने अरमान? आह! कर दूँ कलियों में बन्द मधुर पीड़ाओं का वरदान?
देवि, कितना कटु सेवा–धर्म! न अनुचर को निज पर अधिकार, न छिपकर भी कर पाता हाय! तड़पते अरमानों को प्यार।
हँसो, हिल–डुल वृन्तों के दीप! हँसो, अम्बर के रत्न अनन्त! हँसो, हिलमिलकर लता–कदम्ब! तुम्हें मंगलमय मधुर वसन्त!
चीरकर मध्य निशा की शान्ति कोकिले, छेड़ो पंचम तान; पल्लवों में तुम से भी मधुर सुला जाता हूँ अपने गान।
भिंगोएगी वन के सब अंग रोर कर जब अबकी बरसात, बजेगा इन्हीं पल्लवों बीच विरह मेरा तब सारी रात।
फेंकता हँ लो, तोड़–मरोड़ अरी निष्ठुरे! बीन के तार; उठा चाँदी का उज्ज्वल शंख फूँकता हूँ भैरव – हुंकार।
नहीं जीते–जी सकता देख विश्व में झुका तुम्हारा भाल; वेदना–मधु का भी कर पान आज उगलूँगा गरल कराल।
सोख लूँ बनकर जिसे अगस्त्य कहाँ बाधक वह सिन्धु अथाह? कहो, खांडव–वन वह किस ओर आज करना है जिसका दाह?
फोड़ पढूँ अनन्त पाताल? लूट लाऊँ वासव का देश? चरण पर रख दूं तीनों लोक? स्वामिनी! करो शीघ्र आदेश।
किधर होगा अम्बर में दृश्य देवता का रथ अब की बार? श्रृंग पर चढ़कर जिसके हेतु क नव स्वागत–मन्त्रोच्चार?
चाहती हो बुझना यदि आज होम की शिखा बिना सामान? अभय दो, कूद पहूँ जय बोल, पूर्ण कर लूँ अपना बलिदान!
उगे जिस दिन प्राची की ओर तुम्हारी जय का स्वर्ण विहान, उगे अंकित नभ पर यह मन्त्र, ‘स्वामिनी का असमय आह्वान।’ (Ramdhari Singh Dinkar Poems)
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- स्वर्ग–दहन Ramdhari Singh Dinkar Poems
मेरी ध्वनि के छा गए त्रिदिव में प्रतिध्वनि, सर्वोत्तम स्तब्ध, रुक गया विभावसु का विमान।
मन्दार तप्त, तप रहा सुरों का गन्धवाह, भ्रम रहा स्वर्ग में स्वरारूढ़ भू का प्रदाह।
दृग्विद्ध विवश फट रहा छिन्न घन–सा प्रकाश, गुंजित अम्बर के रन्ध्र–रन्ध्र में अग्नि–हास।
मेरे मानस के वह्रि कुंड में दह्यमान, सुर समझ रहे, मानव के कितने विकल प्राण।
ज्वालाकण बन उड़ रही चतुर्दिक् कुसुम–रेणु, दिव चकित सोच, किसने फूकी यह वह्रि–वेणु।
कोई कहता, खुल गया नरक का अनल–द्वार; कुछ को भ्रम, जागा विरूपाक्ष का अहंकार। (Ramdhari Singh Dinkar Poems)
सुरपित को भय, आया सुरद्विप फिर महाकार; बोला विधु, “यह अम्बर के नीचे की पुकार।“
टिक बीच पंथ में मिहिर सोचता लगा ध्यान, धरती पर ऐसा जीव कौन मेरे सामने
कढ़ शिखा–सदृश जिसके अन्तर की विपुल आह करने आई अम्बर पर चढ़ कर स्वर्ग–दाह?
मृत्तिका–पुत्र मैंने मिट्टी का पिया क्षीर, मिट्टी में मिल जानेवाला मेरा शरीर। तू सत्य सोचता विभापुंज ओ विवस्वान,
धरती पर कोई जीव नहीं तेरे समान। दिव–दाह देखना किसी काल मेरा न ध्येय, अपरार्क कहा, लेना न चाहता मृषा श्रेय।
वंशी पर मैं फूँकता हृदय की करुण हूक, जानें, क्यों शब्दों से उठती है लपट–लूक।
धरती से तेरा स्वर्ग बसा है बहुत दूर, जल जाए अगर तो क्या इसमें मेरा कसूर? (Ramdhari Singh Dinkar Poems)
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- आलोक धन्वा Ramdhari Singh Dinkar Poems
ज्योतिर्धर कवि मैं ज्वलित सौर–मंडल का, मेरा शिखंडी अरुणा, किरीट अनल का।
रथ में प्रकाश के अश्व जुते हैं मेरे किरणों में उज्ज्वल गीत गूंथे हैं मेरे!
मैं उदय–प्रान्त का सिंह प्रदीप्त विभा से, केसर मेरे बलते हैं कनक–शिखा से।
ज्योतिर्मयि अन्त:शिखा अरुण है मेरी, हैं भाई अरुण, कल्पना अरुण है मेरी।
पाया निसर्ग ने मुझे पुण्य के फल–सा, तम के सिर पर निकला मैं कनक–कमल–सा।
उठा दीप्त धरती का कोना–कोना, जिसको मैंने छू दिया हुआ वह सोना।
रंग गई घास पर की शबनम की प्याली, हो गई लाल कुहरे की झीनी जाली।
मेरे दृग का आलोक अरुण जब छलका, बन गईं घटाएँ बिम्ब उषा–अंचल का। (Ramdhari Singh Dinkar Poems)
उदयाचल पर आलोक–शरासन ताने, आया मैं उज्ज्वल गीत विभा के गाने।
ज्योतिर्धनु की शिंजिनी बजा गाता हूँ, टंकार–लहर अम्बर में फैलाता हूँ।
किरणों के मुख में विभा बोलती मेरी, लोहिनी कल्पना उषा खोलतो मेरी।
मैं विभा पुत्र, जागरण गाना है मेरा, जग को अक्षय आलोक–दान है मेरा।
कोदंड–कोटि पर स्वर्ग लिए चलता हूँ, कर–गत दुर्लभ अपवर्ग किए चलता हूँ।
आलोक–विशिख से वेध जगा जन–जन को, सजता हूँ नूतन शिखा जला जीवन को!
जड़ को उड़ने की पाँख दिए देता हूँ, चेतन के मन को आँख दिए देता हूँ।
दौड़ा देता हूँ तरल आग नस–नस में, रहने देता बल को न बुद्धि के बस में।
स्वर को कराल हुंकार बना देता हूँ, यौवन को भीषण ज्वार बना देता हूँ।
शूरों के दृग अंगार बना देता हूँ, हिम्मत को ही तलवार बना देता हूँ।
लोहू में देता हूँ वह तेज रवानी, जूझती पहाड़ों से हो अभय जवानी।
मस्तक में भर अभिमान दिया करता हूँ, पतनोन्मुख को स्थान दिया करता हूँ।
प्रमाण जाति को प्राण दिया करता हूँ, पीयूष–प्रभा–मय गान दिया करता हूँ।
जो कुछ ज्वलन्त हैं भाव छिपे नर–नर में है छिपी विभा उनकी मेरे खर शर में।
किरणें आती हैं समय–वक्ष से कढ़ के, जाती है अपनी राह धनुष पर चढ़ के।
हूँ जगा रहा आलोक अरुण बाणों से, मरघट में जीवन फूँक रहा गानों से।
मैं विभा–पुत्र, जागरण गान है मेरा, जग को अक्षय आलोक दान है मेरा।(Ramdhari Singh Dinkar Poems)
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- चाह एक Ramdhari Singh Dinkar Poems
मैं खोज रहा हूँ तिमिर–बीच कब से ज्योतिर्मय दाह एक, बल उठे किसी दिशि वह्रि–राशि, ले–देकर मेरी चाह एक।
(1)
हो गई शान्त धरणी सभीत, फट–चिट, हिल–डुलकर एक बार, रवगुण अम्बर हो गया मौन, बस,
घहर–गरज कर एक बार ऐसी जड़ता किस भाँति सहे कब तक कोई चैतन्य जीव, अ
न्तर में लेकर आग और आँखों में सिन्धु अथाह एक? बल उठे किसी दिशि वह्रि–राशि, ले–देकर मेरी चाह एक!
(2)
सूखी सरिता, सूखे समुद्र, धूसर अम्बर से मुझे प्यार, यह भी क्या भाव–भरी झाँकी, धरती की छाती में दरार!
वासना एकरस नहीं, बदल अपने मुख का प्राचीन स्वाद, बह चुकी मलयवह वायु बहुत,
बह जाए आज विष–वाह एक। बल उठे किसी दिशि वह्नि–राशि ले–देकर मेरी चाह एक।
(3)
चलूँगा मैं सब एक–एक तीखे, मीठे, फल तोड़–तोड़, अमृत या कि विष–लता, सभी का रस लगा कुछ–कुछ निचोड़।
मैं दूर नहीं रहने आया, संघर्ष–बीच दो मुझे स्थान।
भुज भर जीवन को भेंट सकूँ, मेरे मन में उत्साह एक। बल उठे किसी दिशि वह्रि–राशि, ले–देकर मेरी चाह एक।
(4)
स्वातन्त्र्य, पूजता मैं न तुझे इसलिए कि तू सुख–शान्ति–रुप, हाँ, उसे पूजता, जो चलता तेरे आगे नित क्रान्ति–रूप।
मुझमें उसका बल, तेज, रोष, तेरे दिल में जिसका निनाद, विप्लव का जो है तूर्यनाद, मेरे दिल की वह आह एक।
बल उठे किसी दिशि वह्रि–राशि, ले–देकर मेरी चाह एक।
(5)
क्या सुनूँ, बोलती क्या नन्हीं फूलों की पंखड़ियाँ अजान? हूँ खड़ा मुन्तजिर, बोलेंगी किस दिन गिरि की दरियाँ महान।
अरमान एक यह शेष, कभी भूधर के प्राण पसीज उठे, पत्थर की छाती फोड़ बहे व्याकुल उद्दाम प्रवाह एक।
बल उठे किसी दिशि वह्रि–राशि, ले–देकर मेरी चाह एक।
(6)
जा रहा बीतता हवन–लग्न, करवटें चुका ले शेष–व्याल, मेरे मानस के इष्टदेव, आओ खोले निज जटा–जाल,
यह आमन्त्रण उसका, न मोहने को जिनको हैं धरा–धाम, हैं सीख चुके ये नि:स्व वीर, है दहन मुक्ति की राह एक।
बल उठे किसी दिशि वहिनी–राशि, ले–देकर मेरी चाह एक। (Ramdhari Singh Dinkar Poems)
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- हाहाकार Ramdhari Singh Dinkar Poems
दिव की ज्वलित शिखा–सी उड़ तुम जबसे लिपट गईं जीवन में तृषावन्त मैं घूम रहा कविते! तब से व्याकुल त्रिभुवन में।
उर में दाह, कंठ में ज्वाला, सम्मुख यह प्रभु का मरुथल है, जहाँ पथिक जल की झाँकी में एक बूंद के लिए विकल है!
घर–घर देखा धुआँ धरा पर, सुना विश्व में आग लगी है, जल–ही–जल जन–जन रटता है, कंठ–कंठ में प्यास जगी है।
सूख गया रस श्याम गगन का एक घूँट विष जग का पीकर; ऊपर–ही–ऊपर जल जाते सृष्टि–ताप से पावस–सीकर।
मनुज–वंश के अश्रु–योग से जिस दिन हुआ सिंधु–जल खारा! गिरि ने चीर लिया निज उर, मैं ललक पड़ा लख जल की धारा!
पर, विस्मित रह गया, लगी पीने जब वही मुझे सुधि खोकर, कहती-‘गिरि को फाड़ चली हूँ मैं भी बड़ी पिपासित होकर।
यह वैषम्य नियति का मुझपर, किस्मत बड़ी धन्य उन कवि की, जिनके हित कविते! बनतीं तुम झाँकी नग्न अनावृत छवि की। (Ramdhari Singh Dinkar Poems)
दुखी विश्व से दूर जिन्हें लेकर आकाश–कुसुम के वन में, खेल रहीं तुम अलस जलद–सी किसि दिव्य नन्दन–कानन में।
भूषण–वसन जहाँ कुसुमों के, कहीं कुलिश का नाम नहीं है, दिन भर सुमन–हार–गुम्फन को छोड़ दूसरा काम नहीं है।
वही धन्य, जिसको लेकर तुम बसीं कल्पना के शतदल पर, जिसका स्वप्न तोड़ पाती है मिट्टी नहीं चरण–तल बजकर।
मेरी भी यह चाह, विलासिनि! सुन्दरता को शीश झुकाऊँ, जिधर–जिधर मधुमयी बसी हो, उधर वसन्तानिल बन धाऊँ।
एक चाह कवि की यह देखू–छिपकर कभी पहुँच मालिनि–तट, किस प्रकार चलती मुनि–बाला यौवन वटी लिए कटि पर घट।
झाँकूँ उस माधवी–कुंज में, जो बन रहा स्वर्ग कानन में, प्रथम परस की जहाँ लालिमा सिंगर रही तरुणी–आनन में।
जनारण्य से दूर स्वप्न में मैं भी निज संसार बसाऊँ, जग का आर्त्तनाद सुन अपना हृदय फाड़ने से बच जाऊँ।
मिट जाती ज्यों किरण विहँस सारा दिन कर लहरों पर झिलमिल, खो जाऊँ त्यों हर्ष मनाता, मैं भी निज स्वप्नों से हिलमिल।
पर नभ में न कुटी बन पाती, मैंने कितनी युक्ति लगाई, आधी मिटती कभी कल्पना, कभी उजड़ती बनी–बनाई।
रह–रह पंखहीन खग–सा मैं गिर पड़ता भू ही हलचल में, झटिका एक बहा ले जाती स्वप्न–राज्य आँसू के जल में।(Ramdhari Singh Dinkar Poems)
कुपित देव की शाप–शिखा जब विद्युत बन सिर पर छा जाती, उठता चीख हृदय विद्रोही, अन्ध भावनाएँ जातीं।
निरख प्रतीची–रक्त–मेघ में अस्त–प्राय रवि का मुख–मंडल, पिघल–पिघल कर चू पड़ता है दृग से क्षुभित, विवश अन्तस्तल।
रणित विषम रागिनी मरण की आज विकट हिंसा–उत्सव में; दबे हुए अभिशाप मनुज के लगे उदित होने फिर भव में।
शोणित से रंग रही शुभ्र पट संस्कृति निठुर लिए करवालें, जला रही निज सिंहपौर पर दलित–दीन की अस्थि मशालें।
घूम रही सभ्यता दानवी, ‘शान्ति! शान्ति‘ करती भूतल में, पूछे कोई, भिंगो रही वह क्यों अपने विष–दन्त गरल में ।
टांक रही हो सुई चर्म, पर, शान्त रहें हम तनिक न डोलें; यही शान्ति, गरदन कटती हो, पर, हम अपनी जीभ न खोलें?
बोलें कुछ मत क्षुधित, रोटियाँ श्वान छीन खाँए यदि कर से; यही शान्ति, जब वे आएँ, हम निकल जाएँ चुपके निज घर से?
हब्शी पढ़ें पाठ संस्कृति के खड़े गलियों की छाया में; यही शान्ति, वे मौन रहें जब आग लगे उनकी काया में।
चूस रहे हों दनुज रक्त, पर, हों मत दलित प्रबुद्ध कुमारी? हो न कहीं प्रतिकार पाप का, शान्ति या कि यह युद्ध कुमारी!
जेठ हो कि हो पूस, हमारे कृषकों को आराम नहीं है; छुटे बैल के संग, कभी जीवन में ऐसा याम नहीं है।
मुख में जीभ, शक्ति भुज में, जीवन में सुख का नाम नहीं है, वसन कहाँ? सूखी रोटी भी मिलती दोनों शाम नहीं है। (Ramdhari Singh Dinkar Poems)
विभव–स्वप्न से दूर, भूमि पर यह दुखमय संसार कुमारी! खलिहानों में जहाँ मचा करता है हाहाकार कुमारी!
बैलों के ये बन्धु, वर्ष भर क्या जानें, कैसे जीते हैं? जुबाँ बन्द, बहती न आँख, गम खा, शायद आँसू पीते हैं?
पर, शिशु का क्या हाल, सीख पाया न अभी जो आँसू पीना? चूस–चूस सूखा स्तन माँ का सो जाता रो–बिलप नगीना।
विवश देखती माँ, अंचल से नन्हीं जान तड़प उड़ जाती; अपना रक्त पिला देती यदि फटती आज वज्र की छाती।
कब्र–कब्र में अबोध बालकों की भूखी हड्डी रोती है; “दूध, दूध!” की कदम–कदम पर सारी रात सदा होती है।
“दूध, दूध!” ओ वत्स! मन्दिरों में बहरे पाषाण यहाँ हैं; “दूध, दूध!” तारे, बोलो, इन बच्चों के भगवान कहाँ हैं?
“दूध, दूध!” दुनिया सोती है, लाऊँ दूध कहाँ, किस घर से? “दूध, दूध!” हे देव गगन के! कुछ बूंदे टपका अम्बर से।
“दूध, दूध!” गंगा, तू ही अपने पानी को दूध बना दे। “दूध, दूध!” उफ़! है कोई, भूखे मुर्दों को जरा मना दे?
“दूध, दूध!” फिर “दूध!” अरे, क्या याद दूध की खो न सकोगे? “दूध, दूध!” मरकर भी क्या तुम बिना दूध के सो न सकोगे?
वे भी यहीं, दूध से जो अपने श्वानों को नहलाते हैं! ये बच्चे भी यहीं, कब्र में “दूध–दूध!” जो चिल्लाते हैं!
बेकसूर, नन्हें देवों का शाप विश्व पर पड़ा हिमालय! हिला चाहता मूल विश्व का, देख रहा क्या खड़ा हिमालय?
“दूध, दूध!” फिर सदा कब्र की, आज दूध लाना ही होगा; जहाँ दूध के घड़े मिलें, उस मंजिल पर जाना ही होगा।
जय मानव की धरा साक्षिणी! जय विशाल अम्बर की जय हो! जय गिरिराज! विन्ध्य–गिरि जय–जय! हिन्द महासागर की जय हो!
हटो व्योम के मेघ, पंथ से, स्वर्ग लूटने हम आते हैं, “दूध, दूध!” ओ वत्स! तुम्हारा दूध खोजने हम जाते हैं। (Ramdhari Singh Dinkar Poems)
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