Unique 11+ Mahadevi Verma Poems in Hindi

If you are searching for Mahadevi Verma poems in Hindi then you are at the right place. Here I’m sharing with you to 15 Mahadevi Verma poems in Hindi which is really amazing and interesting I’m sure you will like it.

  1. नये घन Mahadevi Verma poems

लाये कौन सन्देश नये घन! अम्बर गर्वित हो आया नत,

चिर निस्पन्द हृदय में उसके उमड़े री पलकों के सावन!

लाये कौन सन्देश नये घन! चौंकी निद्रित,

रजनी अलसित, श्यामल पुलकित कम्पित कर में दमक उठे विद्युत के कंकण! लाये कौन सन्देश नये घन!

दिशि का चंचल, परिमलअंचल, छिन्न हार से बिखर पड़े सखि!

जुगनू के लघु हीरक के कण! लाये कौन सन्देश नये घन!

जड़ जग स्पन्दित, निश्चल कम्पित, फूट पड़े अवनी के संचित,

सपने मृदुतम अंकुर बन बन! लाये कौन सन्देश नये घन!

रोया चातक, सकुचाया पिक, मत्त मयूरों ने सूने में झड़ियों का दुहराया नर्तन!

लाये कौन सन्देश नये घन! सुखदुख से भर, आया लघु उर,

मोती से उजले जलकण से छाये मेरे विस्मित लोचन!

लाये कौन सन्देश नये घन!

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  1. यह संध्या फूली Mahadevi Verma poems

यह संध्या फूली सजीली! आज बुलाती हैं विहगों को नीड़ें बिन बोले;

रजनी ने नीलममन्दिर के वातायन खोले; एक सुनहली उम्मी क्षितिज से टकराई बिखरी,

तम ने बढ़कर बीन लिए, वे लघु कण बिन तोले!

अनिल ने मधुमदिरा पी ली! मुरझाया वह कंज बना जो मोती का दोना,

पाया जिसने प्रात उसी को है अब कुछ खोना;

आज सुनहली रेणु माली सस्मित गोधूली रजनीगंधा आँज रही हैं नयनों में सोना

हुई विद्रुम वेला नीली! मेरी चितवन खींच गगन के कितने रंग लाई।

शतरंगों के इन्द्रधनुषसी स्मृति उर में छाई;

रागविरागों के दोनों तट मेरे प्राणों में, श्वासें छूतीं एक, अपर निःश्वासें छू आईं!

अधर सस्मित पलकें गीली! भाती तम की मुक्ति नहीं, प्रिय रागों का बन्धन;

उड़ उड़ कर फिर लौट रहे हैं लघु उर में स्पन्दन; क्या जीने का मर्म यहाँ मिट मिट सब ने जाना?

तर जाने को मृत्यु कहा क्यों बहने को जीवन? सृष्टि मिटने पर गर्वीली!

  1. रश्मि Mahadevi Verma poems

चुभते ही तेरा अरुण बान! से बहते कनकन फूटफूट, मधु के निर्झर से सजल गान!

इन कनकरश्मियों में अथाह, लेता हिलोर तमसिन्धु जाग; बोबो से बह चलते अपार,

उसमें विहगों के मधुर राग; बनती प्रवाल का मृदुल कूल, जो क्षितिजरेख थी कुहरम्लान!

नव कुन्दकुसुम से मेघपुँज, बन गए इन्द्रधनुषी वितान; दे मृदु कलियों की चटक,

ताल, हिमबिन्दु नचाती तरल प्राण धो स्वर्णप्रात में तिमिरगीत, दुहराते अलि निशिमूक तान!

सौरभ का फैला केशजाल, करतीं समीरपरियाँ विहार; गीली केसरमद झूम झूम,

पीते तितली के नव कुमार; मर्मर का मधुर संगीत छेड़ देते हैं हिल पल्लव अजान!

फैला अपने मृदु स्वप्नपंख, उड़ गई नींदनिशिक्षितिजपार;

अधखुले दृगों के कजकोषपर छाया विस्मृति का खुमार; रँग रहा हृदय ले अश्रुहास, यह चतुर चितेरा सुधिविहान!

  1. मुरझाया फूल Mahadevi Verma poems

था कली के रूप शैशव में अहो सूखे सुमन, मुस्कराता था, खिलाती अंक में तुझको पवन!

खिल गया जब पूर्ण तू मंजुल सुकमा पुष्पवर, लुब्ध मधु के हेतु मँडराते लगे आने भ्रमर!

स्निग्ध किरणें चन्द्र की तुझको हँसाती थीं सदा, रात तुझ पर वारती थी मोतियों की सम्पदा!

लोरियाँ गाकर मधुप निद्रा विवश करते तुझे, यत्न माली का रहा आनंद से भरता तुझे!

कर रहा अठखेलियां इतरा सदा उद्यान में, अन्त का यह दृश्य आया था कभी क्या ध्यान में?

सो रहा अब तू धरा पर शुष्क बिखराया हुआ; गन्ध कोमलता नहीं मुख मंजु मुरझाया हुआ!

आज तुझको देखकर चाहक भ्रमर आता नहीं, लाल अपना राग तुझ पर प्रात बरसाता नहीं:

जिस पवन ने अंक में ले प्यार था तुझको किया; तीव्र झोंके से सुला उसने तुझे भू पर दिया!

कर दिया मधु और सौरभ दान सारा एक दिन, किन्तु रोता कौन है तेरे लिए दानी सुमन?

मत व्यथित हो फूल! किसको सुख दिया संसार ने? स्वार्थमय सब को बनाया है यहाँ करतार ने!

विश्व में हे फूल! तू सब के हृदय भाता रहा, दान कर सर्वस्व फिर भी हाय हर्षाता रहा;

जब तेरी ही दशा पर दुख हुआ संसार को, कौन रोयेगा सुमन! हमसे मनुज निःसार को?

  1. पपीहे के प्रति Mahadevi Verma poems

जिसको अनुरागसा दान दिया, उससे कण माँग लजाता नहीं; अपनापन भूल समाधि लगा;

यह पी का विहाग भुलाता नहीं; नभ देख पयोधर श्याम घिरा, मिट क्यों उसमें मिल जाता नहीं?

वह कौन सा पी है पपीहा तेरा; जिसे बाँध हृदय में बसाता नहीं?

उसको अपना करुणा से भरा, उरसागर में दिखलाता नहीं? संयोग वियोग की घाटियों में,

नव नेह में बाँध झुलाता नहीं; संताप के संचित आँसुओं से, नहला के उसे तू घुलाता नहीं;

अपने तमश्यामल पाहुन को, पुतली की निशा में सफलता नहीं।

कभी देख पतंग को जो दुख से निज, दीपशिखा को रुलाता नहीं; मिल ले उस मीन से जो जल की,

निठुराई विलाप में गाता नहीं; कुछ सीख चकोर से जो चुगता अंगार, किसी को सुनाता नहीं

अब सीख ले मौन का मंत्र नया, यह पी पी घनों को सुहाता नहीं।

  1. प्रिय चिरन्तर है सजनि! Mahadevi Verma poems

प्रिय चिरन्तर है सजनि क्षण क्षण नवीन सुहासिनी मैं!

श्वास में मुझको छिपाकर वह असीम विशाल चिर घन, शून्य में जब छा गया उसकी सजीली साध साबन,

छिप कहाँ उसमें सकी बुझ बुझ जली चल दामिनी मैं!

छाँह को उसकी सजनि नव आवरण अपना बनाकर, धूलि में निज अश्रु बोने में पहर सूने बिताकर,

प्रात में हँस छिप गई ले छलकते दृग यामिनी मैं! मिलनमन्दिर में उठा दूं जो सुमुख से सजल गुण्ठन,

मैं मिटूँ प्रिय में मिटा ज्यों तप्त सिकता में सलिलकण,

सजनि मधुर निजत्व दे कैसे मिलूं अभिमानी मैं!

दीप सी युगयुग जलूँ पर वह सुभग इतना बता दे, फूँक से उसकी बुझा तो क्षार ही मेरा पता दे!

वह रहे आराध्य चिन्मय मृण्मयी अनुरागिनी मैं! सजल सीमित पुतलियों पर चित्र अमिट असीम का वह,

चाह एक अनन्त वसती प्राण किन्तु ससीमसा यह, रजकणों में खेलती किस विरज विधु की चाँदनी मैं?

  1. पागल संसार! Mahadevi Verma poems

पागल संसार! माँग तू हे शीतल तममय! जलने का उपहार!

करता दीपशिखा का चुम्बन, पल में ज्वाला का उन्मीलन; छूते ही करना होगा;

जो मिटने का व्यापार! पागल संसार!

दीपक जल देता प्रकाश भर,

दीपक को छू जल जाता घर; जलने दे एकाकी मत

हो जावेगा क्षार! पागल संसार!

जलना ही प्रकाश उसमें सुख, बुझना ही तम है तम दुख;

तुझमें चिर दुख, मुझमें चिर सुख कैसे होगा प्यार!

पागल संसार! शलभ अन्य की ज्वाला से मिल,

झुलस कहाँ हो पाया उज्ज्वल! कब कर पाया वह लघु तन से नव आलोकप्रसार!

पागल संसार! अपना जीवनदीप मृदुलतर, वर्ती कर निज स्नेहसिक्त उर;

फिर जो जल पावे हँसहँस कर हो आभा साकार! पागल संसार!

  1. रूपसि तेरा घनकेशपाश! Mahadevi Verma poems

रुपसि तेरा घनकेशपाश!

श्यामल श्यामल कोमल कोमल, लहराता सुरभित केशपाश!

नभगंगा की रजतधार में, धो आई क्या इन्हें रात?

कम्पित हैं तेरे सजल अंग, सिहरासा तन हे सद्यस्नात!

भीगी अलकों के छोरों से चूतीं बूंदें कर विविध लास! रूपसि तेरा धनकेशपाश!

सौरभभीना झीना गीला लिपटा मृदु अंजन सा दुकूल;

चल अँचल से झर झर झरते पथ में जुगनू के स्वर्णफूल;

दीपक से देता बार बार तेरा उज्ज्वल चितवनविलास! रूपसि तेरा घनकेशपाश

उच्छ्वसित वक्ष पर चंचल है वकपाँतों का अरविन्दहार;

तेरी निश्वासें छू भू को बन बन जातीं मलयज बयार;

केकीरव की नूपुरध्वनि सुन जगती जगती की मूक प्यास! रुपसि तेरा घनकेशपाश!

इन स्निग्ध लटों से छा दे तन, पुलकित अंकों में भर विशाल;

झुक सस्मित शीतल चुम्बन से अंकित कर इसका मृदुल भाल;

दुलरा देना बहला देना यह तेरा शिशु जग है उदास! रुपसि तेरा घनकेशपाश!

  1. हौले हौले बोल! Mahadevi Verma poems

मुखर पिक हौले बोल! हठीले हौले हौले बोल!

जाग लुटा देंगी मधु कलियाँ मधुप कहेंगे औरचौंक गिरेंगे पीले पल्लव अम्ब चलेंगे मौर;

समीरण मत्त उठेगा डोल! हठीले हौले हौले बोल!

मर्मर की वंशी में गूंजेगा मधुऋतु का प्यार; झर जावेगा कम्पित तृण से लघु सपना सुकुमार;

एक लघु आँसू बन बेमोल! हठीले हौले हौले बोल!

आता कौननीड़ तज पूछेगा विहगों का रोर; दिग्वधुओं के घनघूंघट के चँचल होंगे छोर पुलक से होंगे सजल कपोल! हठीले हौले हौले बोल!

प्रिय मेरा निशीथनीरवता में आता चुपचाप; मेरे निमिषों से भी नीरव है उसकी पदचाप;

सुभग! यह पल घड़ियाँ अनमोल! हठीले हौले हौले बोल!

वह सपना बन बन आता जागृति में जाता लौट! मेरे श्रवण आज बैठे हैं इन पलकों की ओट;

व्यर्थ मत कानों में मधु घोल! हठीले हौले हौले बोल! भर पावे तो स्वरलहरी में भर वह करुण हिलोर;

मेरा उर तज वह छिपने का ठौर ढूँढ़े भोर; उसे बाँधू फिर पलकें खोल! हठीले हौले हौले बोल!

  1. विभावरी! Mahadevi Verma poems

विभावरी! चाँदनी का अंगराग, माँग में सजा पराग,

रश्मितार बाँध मृदुल चिकुरभार री!

विभावरी! अनिल घूम देशदेश, लाया प्रिय का सन्देश,

मोतियों के सुमनकोष, वार वार री! विभावरी!

लेकर मृदु उम्मन, कुछ मधुर करुण नवीन, प्रिय की पदचापमदिर

गा मलार री! विभावरी! बहने दे तिमिर भार,

बुझने दे यह अँगार, पहिन सुरभि का दुकूल

बकुलहार री! विभावरी!

  1. घूँघट Mahadevi Verma poems

मत अरुण घूँघट खोल री!

वृन्त बिन नभ में खिले जो; अश्रु बरसात से हँसे जो, तारकों के वे सुमन

मत चयन कर अनमोल री! तरल सोने से धुलीं यह, पद्मरागों से सजीं यह,

उलझ अलकें जायेगी मत अनिलपथ में डोल री! निशा गयी मोती सजा कर,

हाट फूलों में लगा कर, मत पूछ इनसे मोल री! लाज से गल जाएगा

स्वर्णकुमकुम में बसा कर; है रंगी नव मेघचुनरु

बिछल मत धुल जायगी इन लहरियों में लाल री!

चाँदनी की सित सुधा भर, बाँटता इनसे सुधाकर, मत कली की प्यालियों में लाल मदिरा घोल री!

पलक सीपें नींद का जल; स्वप्नमुक्ता रच रहे, मिल,

हैं विनिमय के लिए स्मित से इन्हें मत तोल री! खेल सुखदुख से चपल थक,

सो गया जगशिशु अचानक, जाग मचलेगा तू कल खगपिकों में बोल री!

  1. मधु बयार Mahadevi Verma poems

जाने किस जीवन की सुधि ले, लहराती आती मधुबयार!

रंजित कर दे यह शिथिल चरण ले रव अशोक का अरुण

राग, मेरे मण्डन को आज मधुर ला रजनीगंधा का पराग,

यूपी की मीलित कलियों से, अलि दे मेरी कबरी सँवार!

पाटल के सुरभित रंगों से रंग दे हिम साउज्ज्वल दुकूल,

गूँथ दे रशना में अलिगुंजन से पूरित झरते वकुलफूल,

रजनी से अनजान माँग सजनी, दे मेरे अलसित नयनार!

तारकलोचन से सींचसींच नभ करता रज को विरज आज,

बरसाता पथ में हरसिंगार केशर से चर्चित सुमनलाज,

कण्टकित रसालों पर उठता है, पागल पिक मुझको पुकार! लहराती आती मधुबयार!

  1. संसार Mahadevi Verma poems

निःश्वासों का नीड़, निशा का बन जाता जब शयनागार,

लुट जाते अभिराम छिन्न मुक्तावलियों के बन्दनवार

तब बुझते तारों के नीरव नयनों का यह हाहाकार,

आँसू से लिख जाता हैकितना अस्थिर है संसार

हँस देता जब प्रात, सुनहरे अँचल में बिखरा रोली,

लहरों की बिछलन पर जब मछली पड़ती किरणें भोली,

तब कलियाँ चुपचाप उठाकर पल्लव के घूंघट सुकुमार,

छलकी पलकों से कहती है कितना मादक है संसार !’

देकर सौरभ दान पवन से कहते जब मुरझाते फूल,

जिस पथ में बिछे वही क्यों भरता इन आँखों में धूल?

अब इनमें क्या सारमधुर जब गाती भौरों की गुलजार मर्मर का रोदन कहता है कितना निष्ठुर है संसार!’

स्वर्ण वर्ण से दिन लिख जाता जब अपने जीवन की हार,

गोधूली, नभ के आँगन में देती अगणित दीपक वार,

हँसकर तब उस पार तिमिर का कहता बढ़बढ़ परिवार,

बीते युग, पर बना हुआ है अब तक मतवाला संसार!’

स्वप्नलोक के फूलों से कर अपने जीवन का निर्माण,

अमर हमारा राज्यसोचते हैं जब मेरे पागल प्राण,

आकर तब अज्ञात देश से जाने किसकी मृदु झंकार,

गा जाती है करुण स्वरों में कितना पागल है संसार!’

  1. पंकजकली! Mahadevi Verma poems

पंकजकली! क्या तिमिर कह जाता करुण?

क्या मधुर दे जाती किरण? किस प्रेममय दुख से हृदय में अश्रु में मिश्री घुली?

किस मलयसुरभित अंक रह आया विदेशी गंधवह?

उन्मुक्त उर अस्तित्व खो क्यों तू उसे भुजमर मिली?

रवि से झुलसते मौन दृग, जल में सिहरते मृदुल पग,

किस व्रत व्रत में तापसी जाती सुखदुख से छली?

मधु से भरा विधुपात्र है, मद से उनींदी रात है,

किस विरह में अवनतमुखी लगती उजियाली भली?

यह देख ज्वाला में पुलक, नभ के नयन उठते छलक!

तू अमर होने नभधरा के वेदनापथ से पली! पंकजकली! पंकजकली!

  1. रे पपीहे! Mahadevi Verma poems

रे पपीहे पी कहाँ?

खोजता तू इस क्षितिज से उस क्षितिज तक शून्य अम्बर,

लघु परों से नाप सागर, नाप पाता प्राण मेरे प्रिय समा कर भी कहाँ?

हँस डुबा देगा युगों की प्यास का संसार भर तू,

कण्ठगत लघु बिन्दु कर तू!

प्यास ही जीवन, सकूँगी तृप्ति में मैं जी कहाँ?

चपल बन बन कर मिटेगी झूम तेरी मेघमाला!

मैं स्वयं जल और ज्वाला! दीपसी जलती तो यह सजलता रहती कहाँ?

साथ गति के भर रही है विरति या शक्ति के स्वर; मैं बनी प्रियचरणनूपुर! प्रिय बसा उर में सुभग!

सुधि खोज की बसती कहाँ?

Thank you for reading these Mahadevi Verma poems I’m sure you would like it. These Mahadevi Verma poems are very selected poems if you want you can share it with your friends and family.

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